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जैविक तरीके से बासमती धान के ‘काला जीरा’ प्रजाति की खेती कर किसान कर रहे हैं दोगुनी कमाई

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बासमती धान की कई किस्मों की जानकारी हमें नहीं होती। आमतौर पर लोगों को सिर्फ़ इतना ही पता होता है कि हाँ यह बासमती चावल है, यह अरवा चावल है या फिर एक दो किस्मो की जानकारी और होती है उससे ज़्यादा नहीं। लेकिन बासमती धान का ही एक क़िस्म होता है जिसका नाम है “काला जीरा” आज इसी के बारे में हम आपको बताने वाले हैं। इसकी खेती कर किसान अच्छी आमदनी कर रहे हैं।

वैसे तो विकास भारती संस्था द्वारा झारखंड के गुमला इलाके में कई तरह के बासमती धान की खेती की जाती है। किसानों को इस संस्था द्वारा अपने फसलों को बेचने के लिए बाज़ार भी उपलब्ध कराया जाता है। इस तरह यह संस्था कृषि क्षेत्र में अच्छा काम कर रही है, जिससे किसानों को काफ़ी फायदे हो रहे हैं। इसलिए इस क्षेत्र के बानालात जगह के किसान रासायनिक खेती के बदले जैविक खेती को ज़्यादा बढ़ावा दे रहे हैं और जैविक खेती के द्वारा ही बासमती धान के काला जीरा क़िस्म की खेती कर रहे हैं।

जैविक खेती के द्वारा उगाए गए फसलों से मिट्टी की गुणवत्ता के साथ-साथ हमारा स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है। विकास भारती के द्वारा चलाए जा रहे कृषि विज्ञान केंद्र के विज्ञानी डॉ. संजय पांडेय के प्रयास से पिछले वर्ष सामूहिक खेती की शुरुआत की गई थी जो काफ़ी सफल हो रही है। इसलिए उस इलाके के किसान अब उस चावल का निर्यात करने की तैयारी में भी जुट चुके हैं।

किसानों को आत्मनिर्भर बनाना मुख्य उद्देश्य था

उस इलाके के किसान बासमती धान के काला जीरा क़िस्म की खेती कर उसे बेच भी रहे हैं, जिससे उन्हें बहुत अच्छी आमदनी प्राप्त हो रही है। विकास भारती संस्था के सचिव पद्मश्री अशोक भगत ने कहा कि उनका मुख्य उद्देश्य है किसानों को आत्मनिर्भर बनाना, जिससे वह खेती छोड़ नौकरी की तलाश में दूसरे शहर ना जाएँ। संस्था द्वारा किसानों को हर तरह की जैसे खेती करने से लेकर, धान से चावल को अलग करना और बाजारों में उसे बेचना इत्यादि सारी सुविधाएँ मुहैया कराई जा रही है।

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किसानों को मिल रही दोगुनी कीमत

कृषि विज्ञान केंद्र के विज्ञानी संजय पांडेय का कहना है कि पहले बानालात के किसान मोटा धान व गेहूँ की खेती करते थे और किसानों को मोटा धान और गेहूँ की खेती करने से लागत की तुलना में आमदनी नहीं हो पा रही थी। उन किसानों को जब पता चला कि हमारे क्षेत्रों में पहले काला जीरा और जीरा फुल क़िस्म के धान की खेती होती थी तब उन्होंने इसकी खेती की शुरुआत की। लेकिन उन किसानों के पास इसकी खेती करने के लिए बीज तक उपलब्ध नहीं थे।

बीज के लिए उन्हें कई गांवों में घूमना पड़ा तब जाकर उन्हें बीज मिला। बीज मिलने के बाद पिछले वर्ष 56 किसानों के साथ 25 हेक्टेयर क्षेत्र में काला जीरा धान की खेती की शुरुआत की गई। जिससे लगभग 200 क्विंटल धान का उत्पादन हुआ। तो वहीं इस साल इसका उत्पादन बढ़कर 400 क्विंटल तक पहुँच गया।

किसानों द्वारा उगाए गए इस धान को विकास भारती संस्था ने 3500 रुपये प्रति क्विंटल की दर से खरीद लिया। वहीं किसान अगर अपने द्वारा उगाए गए इस धान को ख़ुद से बाजारों में बेचते तो उन्हें सिर्फ़ 2000 से 2500 रूपये प्रति क्विंटल की क़ीमत ही मिल पाता। इस साल भी धान से चावल निकालने के बाद उसकी पूरी प्रक्रिया कर बाजारों में लाने की तैयारी भी कर ली गई है।

बानालात क्षेत्र में इस खेती को कर रहे कुछ किसान जैसे, बाबूराम उरांव, मलखन उरांव, कुंती देवी, रामवृक्ष खेरवार का कहना है कि इस खेती से उन्हें बहुत ज़्यादा मुनाफा हो रहा है वही पहले जब वह खेती करते थे तो उन्हें बहुत ज़्यादा घाटा होता था। उन्होंने यह भी बताया कि अब वह अपनी फ़सल को कहीं भी ले जाकर बेच भी सकते हैं।

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लुप्त हो रही धान के काला जीरा प्रजाति को फिर से जीवित किया

कृषि विज्ञानी डाॅ। संजय पांडेय ने बताया कि बासमती धान की काला जीरा प्रजाति बिल्कुल ही विलुप्त होने के कगार पर थी। इसलिए बासमती धान के इस क़िस्म को बचाने के लिए उन्होंने घाघरा नदी के किनारे इसकी खेती की फिर से शुरुआत की और उसी नदी के किनारे किसानों को सिंचाई के लिए पंपसेट की व्यवस्था भी कराई गई।

इस तरह सिर्फ़ कुछ लोगों के प्रयास से विलुप्त होती बासमती धान की प्रजाति काला जीरा को फिर से जीवित किया गया ताकि एक धरोहर के रूप में यह लोगों के पास बनी रहे।

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