History of Cloth Cleaning: भारत एक प्राचीन देश है, जहाँ सदियों तक राजा महाराजाओं ने शासन किया है। यह देश अपने खूबसूरत महलों, शाही अंदाज और रहन सहन के लिए जाना जाता है, जहाँ राजा महाराजा और रानियाँ विभिन्न प्रकार के महंगे वस्त्रों का इस्तेमाल करते थे।
उस दौर में न तो कपड़े धोने वाला साबुन हुआ करता था और न ही सर्फ, लेकिन इसके बावजूद भी शाही परिवार के लोगों के कपड़ों की चमक बिल्कुल भी फिकी नहीं पड़ती थी। ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि उन महंगे वस्त्रों को धोने के लिए किस चीज का इस्तेमाल किया जाता था और उनकी चमक कैसे बरकरार रहती थी।
कैसे धुलते थे शाही परिवार के कपड़े?
अगर अंग्रेज भारत नहीं आते, तो शायद हम भारतीय काफी लंबे समय तक साबुन और सर्फ जैसे प्रोडक्ट्स से परिचित नहीं हो पाते। क्योंकि उस दौर में आम नागरिकों के पास गिने चुने कपड़े होते थे, जिनकी धुलाई के लिए सिर्फ पानी का इस्तेमाल किया जाता था। इसे भी पढ़ें – चीनी का इतिहास: भारत ने दुनिया को दी थी भूरी शक्कर, सालों साल बाद सफेद दानेदार चीनी के रूप में वापस लौटी
हालांकि उस दौर में भारत में राज करने वाले शासकों और उनके शाही परिवार के सदस्यों द्वारा रेशम और अन्य प्रकार के कीमती वस्त्रों का इस्तेमाल किया जाता था, जिनकी धुलाई के लिए सिर्फ पानी ही काफी नहीं होता था। इसके साथ ही उन वस्त्रों की चमक को बरकरार रखना भी एक बहुत बड़ी चुनौती थी, जिससे निपटना भारतीय अच्छी तरह से जानते थे।
दरअसल उस दौर में महंगे कपड़ों की धुलाई के लिए रीठा का इस्तेमाल किया जाता था, जो एक प्राकृतिक वनस्पति और खनिज पदार्थ है। रीठा में बहुत से पोषक तत्व पाए जाते हैं, जो कपड़ों की गंदगी को दूर करने के साथ-साथ उनकी चमक को बनाए रखने में भी मददगार साबित होता था।
महलों में होते थे रीठा के उद्यान
रीठा की मदद से रेशमी व अन्य महंगे कपड़ों की ऑर्गेनिक धुलाई की जाती थी, जिसकी वजह से शाही परिवार के कपड़े धोने के लिए बहुत ज्यादा मात्रा में रीठा की जरूरत होती थी। ऐसे में राजमहलों में रीठा के अलग से पेड़ या बाग उगाए जाते थे, जो कपड़ों को बैक्टीरिया मुक्त रखने में भी अहम भूमिका निभाता था। इसे भी पढ़ें – लक्ष्मी था भारत के सबसे मशहूर मेकअप ब्रांड ‘Lakme’ का नाम, JRD TATA ने रखी थी नींव
रीठा से कपड़े धोने के लिए मुख्य रूप से दो तरीकों का इस्तेमाल किया जाता था, जिसमें कम कीमती कपड़ों के लिए गर्म पानी में रीठा और कपड़ों डालकर उन्हें साथ उबाला जाता था। इसके बाद पानी के ठंडा होने पर कपड़ों को बाहर निकाल लिया जाता था और उन्हें पत्थर पर मारते हुए साफ किया जाता था।
ऐसा करने से कपड़ों में लगी गंदगी और मैल आसानी से निकल जाता था, जबकि कपड़े बिल्कुल साफ हो जाते थे। इस तरह से कपड़ों की धुलाई करने के लिए बड़े-बड़े बर्तनों का इस्तेमाल किया जाता था, जिसमें एक साथ कई कपड़ों को रीठा के साथ उबाल कर धोया जाता था और इसके लिए अलग से धोबी घाट भी होते थे।
वहीं महंगे और रेशमी कपड़ों की धुलाई के लिए दूसरा तरीका अपनाया जाता था, जिसके लिए थोड़े से पानी रीठा को डालकर अच्छी तरह से उबाला जाता था। ऐसा करने से पानी की ऊपरी सतह पर रीठा का झाग इकट्ठा हो जाता था, जिसे हाथों से निकाल कर कपड़ों पर साबुन की तरह लगाया जाता था।
इसके बाद उस कपड़े को हल्के हाथों से लकड़ी या फिर पत्थर पर रगड़ा जाता था, जिससे उन पर लगा मैल हट जाता था और कपड़ों की चमक भी बरकरार रहती थी। इसके बाद उन सभी कपड़ों को धोबी घाट में सूखा कर राजमहल तक पहुँचाया जाता था, जहाँ शाही परिवार दोबारा से धुले हुए कपड़ों का इस्तेमाल करते थे। इसे भी पढ़ें – गोल क्यों बनाए जाते हैं दुनिया भर के कुंए, जानिए इसके पीछे की वजह
रेह से की जाती थी कपड़ों की धुलाई
प्राचीन काल में कपड़ों की धुलाई के लिए रीठा के अलावा रेह नामक पाउडर का इस्तेमाल किया जाता था, जो जमीन के अंदर मिट्टी में प्रचुर मात्रा में पाया जाता था। इस पाउडर का इस्तेमाल गाँव और कस्बों में रहने वाले गरीब वर्ग के लोग कपड़े धोने के लिए किया करते थे, जिसे मिट्टी से खोदकर निकाला जाता था।
रेह को पानी में सर्फ की तरह मिला लिया जाता था और फिर उस पानी में गंदे कपड़ों को भिगो कर कुछ देर के लिए छोड़ दिया जाता था, ताकि कपड़ों की गंदगी दूर हो जाए। इसके बाद कपड़ों को पानी से निकाल कर पत्थर पर मारते हुए साफ कर लेते थे और फिर उन्हें साफ पानी से धोल लिया जाता था।
आपको बता दें कि रेह एक बहुमूल्य खनिज होता है, जिसमें सोडियम सल्फेट, मैग्रीशियम सल्फेट, सोडियम हाइपोक्लोराइड और कैल्शियम सल्फेट जैसे तत्व पाए जाते हैं। यह सभी तत्व कपड़ों की धुलाई करने के साथ-साथ उन्हें बैक्टीरिया मुक्त रखने में भी मददगार साबित होते हैं, जबकि इससे कपड़ों की चमक भी बरकरार रहती है। इसे भी पढ़ें – हवा से कोई नाता नहीं फिर भी आखिर क्यों पैरों में पहनी जाने वाली स्लीपर को कहते है ‘हवाई चप्पल’
समुद्र के सोडा से कपड़ों की धुलाई
भारत में बहुत से राज्य समुद्र के किनारे बसे हुए हैं, जहाँ रीठा के पेड़ नहीं होते थे और न ही वहाँ रेह मिलता था। ऐसे में उन इलाकों में रहने वाले लोग नदियों और समुद्र में मिलने वाले सोडा का इस्तेमाल करके कपड़ों की सफाई करते थे, जो गंदगी को दूर करने में काफी मददगार साबित होता था।
इसके अलावा उस दौर में भारतीय खुद को साफ रखने के लिए मिट्टी और राख का इस्तेमाल करते थे, जिसमें कई प्रकार प्राकृतिक तत्व मौजूद होते थे। मिट्टी और राख को शरीर पर साबुन की तरह रगड़कर नहाया जाता था, जबकि राजा महाराजा नहाने के लिए मूलतानी मिट्टी और बेसन आदि का इस्तेमाल करते थे। वहीं रानियाँ बालों को धोने के लिए रीठा से बने प्राकृतिक शैंपू और फूलों के रस का उपयोग करती थी। इसे भी पढ़ें – सैनिक स्कूल में कैसे होता है छात्रों का एडमिशन, जानें प्रवेश परीक्षा और फीस से जुड़ी अहम बातें
ब्रिटिश काल में भारत आया था साबुन (How soap came in India)
इस तरह भारतीय लगभग 19वीं शताब्दी तक साबुन के इस्तेमाल के बारे में नहीं जानते थे, लेकिन अंग्रेजों के आगमन के साथ ही भारत में साबुन की शुरुआत भी हो गई थी। इंग्लैंड के लीबर ब्रदर्स ने भारत में पहली बार साबुन की शुरुआत की थी, जिसके लिए साल 1897 में मेरठ में पहली सोप फैक्ट्री की स्थापना की गई थी।
इस तरह साबुन की फैक्ट्री की स्थापना के बाद धीरे-धीरे भारतीयों को कपड़े धोने और नहाने वाले साबुन के बारे में पता चला, जिनका इस्तेमाल करना आसान था और कपड़े धोने में भी ज्यादा वक्त नहीं लगता था। लिहाजा धीरे-धीरे प्राकृतिक तरीकों से कपड़ों की धुलाई बंद हो गई और भारतीयों ने साबुन और सर्फ को अपना लिया था। इसे भी पढ़ें – कभी सोचा है एक कोने से क्यों कटा होता है SIM Card, जानिए इसके पीछे की वजह