दोस्तों, अक्सर देखा जाता है कि पढ़े-लिखे युवा खेती से दूर भागते हैं, हर कोई पढ़ाई-लिखाई करके अपने देश में या विदेश में अच्छी पोस्ट पर जॉब पाना चाहता है, लेकिन आज हम जिस शख़्स की बात करने जा रहे हैं, उन्होंने इंजीनियरिंग पूरी करने के बाद भी जॉब करने की बजाय अपने पारंपरिक कार्य खेती को अपना करियर बनाया और आज उससे अच्छी खासी कमाई कर रहे हैं।
हम बात कर रहे हैं UP के इटावा जिले में रहने वाले शिवम तिवारी (Shivam Tiwari) की, जो टिशू कल्चर टेक्निक (Tissue Culture Techniques) की सहायता से 30 एकड़ ज़मीन पर कुफरी फ्रॉम प्रजाति का आलू और उसके बीज अपने खेतों में तैयार कर रहे हैं। इस तरह का आलू चार इंच लंबा होता है और इसका इस्तेमाल ज्यादातर चिप्स और फिंगरचिप्स बनाने में किया जाता है। यह आलू चिप्स बनाने वाली बड़ी कंपनियों को भेजा जाता है।
शिवम तिवारी (Shivam Tiwari)
पिछले वर्ष उनका टर्नओवर 1 करोड़ रुपए का था। शिवम तिवारी (Shivam Tiwari) अपने प्रदेश में ऐसे पहले किसान हैं जिन्होंने खेती में यह तकनीक (Tissue Culture Techniques) उपयोग की है। अब वे कृषि अनुसंधान केंद्र शिमला को भी 1000 बीघा ज़मीन के लिए बीज तैयार करके भेजने वाले हैं। फिर बाद में आलू के यह बीज सारे देश में किसानों को उपलब्ध कराए जाएंगे। चलिए जानते हैं इनकी पूरी कहानी…
इंजीनियरिंग के बाद नौकरी नहीं की, पिता के साथ खेती में लग गए
प्रगतिशील किसान शिवम तिवारी (Shivam Tiwari) ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की थी, पर शुरू से ही उनकी खेती में रुचि थी। अतः 21 वर्षीय शिवम ने अपनी पढ़ाई पूरी करके कहीं जॉब के लिए आवेदन नहीं किया बल्कि, अपने पिताजी के साथ खेती के काम में उनकी सहायता करने लगे। फिर उन्होंने खेती को ही अपना करियर बना लिया।
उन्होंने बताया कि “पापा पहले भी आलू की खेती ही किया करते थे, पर साधारण तरीके से। उस समय उनकी ज़्यादा पैदावार नहीं होती थी। फिर पापा मेरठ के आलू अनुसंधान केंद्र में गए। वहाँ से उनको टिशू कल्चर तकनीक (Tissue Culture Techniques) से खेती करने के बारे में जानकारी प्राप्त हुई। इसके पश्चात साल 2018 में हमने एक्सपर्ट्स को बुलवाया और फिर टिशू कल्चर की फार्मिंग (Tissue Culture Farming) करने के लिए लैब बनवाया।”
30 एकड़ ज़मीन पर Tissue Culture Techniques से तैयार करते हैं कुफरी फ्रॉम वैरायटी के आलू
जिस समय शिवम अपनी पढ़ाई कर रहे थे उस दौरान भी जब उनका गाँव में आना होता था तो वे अपने खेतों में अवश्य जाया करते थे। फिर वह लैब बनाने वाले एक्सपर्ट से भी मिले और उनका काम देखकर उससे सीखा करते थे। इसके बाद साल 2019 में उनकी पढ़ाई पूरी हो गई और फिर वह अपने गाँव वापस आकर पिताजी के साथ खेतों में हाथ बंटाने लगे।
इस समय शिवम तिवारी के साथ 15-20 लोग नियमित तौर पर काम करते हैं। जब सीजन का टाइम होता है उस समय तो उनके साथ 50 लोग खेतों में काम करने आते हैं। अब आलू की इस विशेष क़िस्म की पैदावार करने के लिए उनको लाइसेंस भी मिल गया है। वे UP के साथ अन्य कई राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में भी आलू की इस ख़ास क़िस्म के बीज भेज रहे हैं।
कुफरी फ्रॉम आलू की खासियत
शिवम तिवारी (Shivam Tiwari) बताते हैं कि कुफरी फ्रायोम प्रजाति के आलू का इस्तेमाल अलग-अलग कंपनियाँ फ्रेंच फ्राइज के लिए करती हैं। यह कम समय में पकने वाली आलू की नई क़िस्म है। उथली आंखों, सफेद गूदे के साथ आकर्षक सफेद, क्रीम छिलका, लंबे व ओबलोग कंद का उत्पादन करता है। यह आलू खाने में भी स्वादिष्ट होता है। इसे बहुत दिनों तक रखा भी जा सकता है और इसका उपयोग व्यावसायिक बाज़ार में किया जाता है। उन्होंने यह भी बताया कि इस तरह के आलू की नई किस्में जैसे-कुफरी संगम, कुफरी सुख्याती, कुफरी लीजा भी विकसित हो गयी हैं।
क्या है टिशू कल्चर फार्मिंग? (Tissue Culture Farming)
टिशु कल्चर विधि में पौधों के ऊतकों (टिशूज) या उत्तकों के एक छोटे हिस्से को निकालकर फिर उसे लैब में प्लांट्स हॉरमोन की सहायता से सवंर्धित किया जाता है। इस तकनीक से काफ़ी कम समय में ही एक टिशू से हजारों पौधे तैयार किए जाते हैं। क्योंकि इसमें जैली के रूप में विभिन्न प्लांट्स के पोषक तत्व शामिल होते हैं, जिनसे पौधे विकसित होते हैं।
केंद्रीय आलू अनुसंधान केंद्र (CPRI) शिमला से कल्चर ट्यूब लाकर उससे शिवम अपनी लैब में पौधे तैयार करते हैं। एक कल्चर ट्यूब की क़ीमत 5 हज़ार रुपए होती है, जिससे 20-30 हज़ार पौधे तैयार हो जाते हैं। इस तरह से इन पौधों से करीब ढाई लाख आलू (बीज) तैयार होते हैं।
शिवम के पिता पहले भी आलू की खेती करते थे अब उन्होंने इस ख़ास टिश्यू कल्चर तकनीक से फार्मिंग (Tissue Culture Farming) शुरू कर दी है। शिवम फरवरी के महीने में शिमला से आलू के ट्यूबर लाकर अक्टूबर माह तक उसे अपने लैब में रखते हैं। इसके बाद जो पौधे लैब में तैयार होते हैं, उन्हें खेत में लगा दिया जाता है। उससे आलू के बीज 2 से ढाई महीने बाद ही तैयार हो जाते हैं। फिर मशीन से खुदाई करके बीज निकाल लिए जाते हैं।
टिशू कल्चर फार्मिंग के लाभ (Benefits of tissue culture farming)
- इस विधि से तैयार किए गए पौधे रोगमुक्त और स्वस्थ होते हैं।
- थोड़े समय में ही ज़्यादा बीज तैयार किए जा सकते हैं।
- इन बीजों से पौधे की गुणवत्ता भी अच्छी होती है और उत्पादन भी ज़्यादा होता है।
- टिशु कल्चर फार्मिंग से किसी भी वैरायटी के पौधे लैब में ही तैयार किए जा सकते हैं।
- इसमें बीज हमेशा उपलब्ध रहते हैं इसलिए पूरे साल खेती की जा सकती है।
- नए पौधे विकसित करने के लिए काफ़ी कम स्थान की ज़रूरत पड़ती है।
- मार्केट में नई किस्मों के उत्पादन को गति देने में भी यह विधि सहायक है।
कौन-कौन से पौधे उगा सकते हैं टिशू कल्चर विधि से?
शिवम ने साल 2018 में टिशू कल्चर तकनीक (Tissue Culture Techniques) से खेती शुरू की थी। जिसमें कम समय में एक टिशू से बहुत से पौधे तैयार हो जाते हैं। हालांकि हमारे देश में यह तकनीक अभी ज़्यादा लोकप्रिय नहीं है और इसे लगाने में भी लाखों का ख़र्च आ जाता है, लेकिन बहुत से किसान इस तकनीक से कृषि करते हैं। नर्सरी में लगाए जाने वाले फ्लावर्स, डेकोरेशन के फ्लावर्स, केला, दवाई बनाने में उपयोग किए जाने वाले पौधे, आलू, बिट्स, आम, अमरूद और बहुत तरह की सब्जियों और फलों के बीजों को भी टिशू फार्मिंग तकनीक से तैयार किया जा सकता है।
कहाँ से लें इसका प्रशिक्षण? (Tissue culture technique training)
हमारे देश में बहुत से संस्थानों में टिशु कल्चर फार्मिंग (Tissue Culture Farming) का प्रशिक्षण दिया जाता है। जिसके लिए सर्टिफिकेट लेवल से लेकर डिग्री लेवल के कोर्स उपलब्ध कराए जाते हैं। किसान भाई अपने पास के कृषि विज्ञान केंद्र से इस विषय में सारी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। शिमला में स्थित केंद्रीय आलू अनुसंधान केंद्र और मेरठ में स्थित आलू अनुसंधान केंद्र में भी किसानों को इसका प्रशिक्षण दिया जाता है। बहुत से किसान भी व्यक्तिगत तौर पर इसकी ट्रेनिंग देते हैं। यदि किसी किसान को टिशु कल्चर फार्मिंग (Tissue Culture Farming) का सेटअप लगाना हो तो कृषि अनुसंधान केंद्र उनकी सहायता करते हैं।