Interesting Story of Dalada – भारत में खानपान से सम्बंधित कई तरह के जायके मिलते हैं, जिनका स्वाद बढ़ाने का काम करते हैं यहाँ पाए जाने वाले तेल और मसाले। फिर चाहे वह रामू हलवाई के समोसे हो या फिर भंडारे का प्रसाद, ज्यादातर चीजों को आज भी वनस्पति घी में पकाया जाता है।
भारत में वनस्पति घी को सिर्फ डालडा (Dalda) के नाम से ही जाना जाता है, क्योंकि इसके अलावा हमारे देश में कोई दूसरा वनस्पति घी इस्तेमाल नहीं किया जाता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि डालडा का इतिहास (History of Dalda) कितना पुराना है और इस ब्रांड की शुरुआत कैसे हुई थी।
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भारत में डालडा की शुरुआत (History of Dalda)
डालडा भारत में इस्तेमाल किया जाने वाला सबसे मशहूर वनस्पति घी का ब्रांड है, जिसकी शुरुआत साल 1937 में हिंदुस्तान यूनिलीवर (HINDUSTAN UNILEVER) नामक कंपनी ने की थी। भारत में डालडा का इतिहास (History of Dalda) आजादी से पहले का है, इसलिए पिछले 90 सालों से इस ब्रांड ने बाज़ार में अपनी पकड़ बनाई हुई है।
साल 1930 में नीदरलैंड की एक कंपनी वनस्पति घी का व्यापार करने के मकसद से भारत में आई थी, जिसने यहाँ डाडा नामक ब्रांड की शुरुआत की। डाडा एक हाइड्रोजेनेटेड वेजिटेबल ऑयल था, इसलिए उसमें खाना बनाने के दौरान एक अजीब-सी महक आती थी।
ऐसे में भारतीयों को डाडा का स्वाद इतना पसंद नहीं आया, लेकिन इसी दौरान ब्रिटिश कंपनी हिंदुस्तान यूनिलीवर ने नीदरलैंड की उस कंपनी के साथ हाथ मिल गया। इस तरह दोनों कंपनियों ने साथ मिलकर वनस्पति घी बनाने का फैसला किया, लेकिन ब्रांड के नाम पर अभी भी संकोच था।
ऐसे में हिंदुस्तान यूनिलीवर ने उस वनस्पति घी का नाम डाडा से बदल कर डालडा कर दिया, जो पहले से ज्यादा आकर्षित और बोलने में आसान था। इस तरह साल 1937 में हिंदुस्तान यूनिलीवर ने भारत में पहली बार डालडा ब्रांड को लॉन्च किया था।
डालडा के नाम के साथ उसकी पैकेजिंग और मार्केटिंग के तरीकों में भी बदलाव किए गए, ताकि भारतीयों को यह ब्रांड ज्यादा से ज्यादा पसंद आ सके। डालडा की सबसे खास बात यह थी कि वनस्पति घी होने के बावजूद भी इसमें भोजन पकाने पर किसी प्रकार की तेज महक नहीं आती थी, जिससे भारतीय इसकी तरफ आकर्षित होने लगे।
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मार्केटिंग का आकर्षक तरीका
हिंदुस्तान यूनिलीवर ने बाज़ार में डालडा को शुद्ध देशी घी के विकल्क के रूप में लॉन्च किया था, ताकि गरीब और मध्यम वर्ग के लोग भी इस खाद्य पदार्थ को आसानी से खरीद सके। इसके साथ ही कंपनी ने डालडा के आकर्षक विज्ञापन भी दिए और इसे माँ का भरोसेमंद ब्रांड बताते हुए बाज़ार में पेश किया, जिसकी वजह से मध्यम वर्गीय परिवार डालडा का इस्तेमाल करने के लिए काफी उत्सुक होते चले गए।
इसके अलावा विज्ञापनों में डालडा को सेहत के लिए फायदेमंद खाद्य पदार्थ बताया जाता था, जो स्वाद में काफी हद तक घी से मिलता जुलता है। इस तरह परिवार और स्वाद का किनारा पकड़ कर हिंदुस्तान यूनिलीवर ने डालडा को भारत के हर घर तक पहुँचा दिया।
डालडा की कीमत देसी घी और तेल के मुकाबले काफी कम थी, इसलिए गरीब और मध्यम वर्गीय परिवारों के लिए इस ब्रांड की खरीददारी करना कम खर्चीला साबित होता था। इस तरह डालडा देखते ही देखते भारत का सबसे नंबर वन कुकिंग ऑयल ब्रांड बन गया था, लेकिन कुछ समय बाद डालडा का विरोध होना शुरू हो गया।
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क्या था डालडा के विरोध का कारण?
साल 1937 से भारतीय बाजारों में अपनी शुरुआत करने वाला डालडा 90 के दशक तक पूरे भारत में छा चुका था, जिसकी वजह से अब उसके खिलाफ विरोध के स्वर तेज होने लगे थे। डालडा के बढ़ते व्यापार की वजह से अन्य तेल कंपनियों को घाटा हो रहा था, जिसकी वजह से व्यापारियों के बीच जबरदस्त आक्रोश पैदा हो गया था।
ऐसे में अन्य तेल कंपनियों ने भी डालडा की तरह वनस्पति घी बनाने का काम शुरू कर दिया, जिसकी वजह से बाज़ार में अलग-अलग ब्रांड वनस्पति घी आने लगे और डालडा का कंपीटिशन बढ़ गया। इस तरह धीरे-धीरे डालडा की मांग में कमी आने लगी और अन्य ब्रांड के वनस्पति घी का व्यापार बढ़ने लगा।
इसके अलावा भारत में डालडा के पतन का मुख्य कारण व्यापारियों और तेल कंपनियों द्वारा फैलाई गई अफवाह थी, जिसमें यह दावा किया गया था कि डालडा में चिकनाई बढ़ाने के लिए जानवरों की चर्बी मिलाई जाती है। ऐसे में भारतीय परिवारों के लिए जानवर की चर्बी से तैयार डालडा का सेवन करना किसी पाप से कम नहीं था, लिहाजा डालडा की मांग तेजी से कम होने लगी।
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रिफाइंड ऑयल ने ले ली डालडा की जगह
इस तरह बीतते वक्त के साथ डालडा की चमक भारतीय बाजारों में फिकी होनी लगी और उसकी जगह रिफाइंड ऑयल ने ले ली। 21वीं शताब्दी आने तक नई तेल कंपनियों ने बाज़ार में डालडा के विकल्प के रूप में रिफाइंड ऑयल लॉन्च किया, जिसे स्वास्थ्य के लिए ज्यादा सेहतमंद बताया गया।
इस तरह भारतीयों को डालडा के बाद रिफाइंड ऑयल के रूप में मूंगफली, सूरजमुखी, तिल और सोयाबीन से बने ऑयल का विकल्प मिलने लगा, जिनका दाम कम था और यह गरीब व मध्यम वर्गीय परिवार की पहुँच में भी था।
इसके साथ ही रिफाइंड ऑयल कंपनियों ने ऐसे विज्ञापन लॉन्च किए, जिसमें डालडा को सेहत के लिए हानिकारक बताया जाता था और उसे खाने से दिल सम्बंधी बीमारी हो जाती थी। वहीं इन विज्ञापनों में रिफाइंड ऑयल खाने के फायदे भी बताए जाते थे, ताकि ग्राहक ज्यादा से ज्यादा रिफाइंड ऑयल खरीदने के लिए आकर्षित हो सके।
साल 2010 तक भारतीय बाजारों में रिफाइंड ऑयल का व्यवसाय 90 फीसदी तक पहुँच गया था, लेकिन इसके बाद बाज़ार में अन्य तरह के कुकिंग ऑयल अस्तित्व में आए। जिसकी वजह से रिफाइंड ऑयल का व्यापार घटने लगा और आज ज्यादातर भारतीय रिफाइंड तेल का इस्तेमाल करने स परहेज करते हैं।
देखा जाए तो रिफाइंड ऑयल कंपनियों ने जो खेल डालडा के साथ खेला था, बीतते समय के साथ नई ऑयल कंपनियों ने वही खेल रिफाइंड ऑयल के साथ खेला। इस तरह बाज़ार में नए कुकिंग ऑयल ब्रांड आए, जो सेहत के लिए फायदेमंद होने का दावा करते हैं।
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पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है डालडा
भले ही आज घर पर रोजाना के खानपान की चीजों के लिए डालडा का इस्तेमाल न किया जाता हो, लेकिन हलवाई आज भी अलग-अलग तरह के पकवान बनाने के लिए डालडा का ही चुनाव करते हैं।
डालडा सिर्फ भारत में ही मशहूर नहीं है, बल्कि इसकी लोकप्रियता एशिया के अन्य देशों में भी काफी ज्यादा है। बीते कुछ सालों में भारतीय बाजारों डालडा की मांग में कमी आई है, लेकिन पाकिस्तान, अफगानिस्तान और म्यांमार समेत अन्य देशों में आज भी डालडा में व्यंजन पकाए जाते हैं।
हालांकि 90 सालों तक हिंदुस्तान यूनिलीवर का एक प्रसिद्ध ब्रांड रहने के बावजूद साल 2003 में कंपनी ने डालडा को BUNGE LIMITED कंपनी को बेच दिया था, क्योंकि भारत में डालडा की बिक्री बहुत ही सीमित होती है। लेकिन फिर भी डालडा के स्वाद और स्वाभिमान की कहानी आज भी नई-सी लगती है, जो कड़ाही से निकले तले हुए पकवानों में जान डाल देता है।