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कठपुतली का इतिहास – कभी शाही लोगों की शान समझा जाने वाला ये खेल अब है खत्म होने की कगार पर

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History of kathputli Khel – कठपुतली का नाम तो आपने ज़रूर सुना ही होगा। हालांकि आप यदि राजस्थान से बाहर से हैं, तो इस खेल से बहुत कम ही परिचित होंगे। लेकिन कठपुतली पर न जाने कितने ही शायरों और कवियों ने अब तक कविताएँ लिखी, पर फिर भी कभी कठपुतली के खेल का विस्तार राजस्थान से ज़्यादा दूर तक नहीं हो सका। यदि आप कठपुतली के खेल को नहीं जानते तो हम आपको बता दें कि हाल ही में 21 मार्च को विश्व कठपुतली दिवस भी मनाया गया है। इससे इस खेल के महत्त्व को समझा जा सकता है।

ढोल-मंजीरे की थाप पर हाथों की अंगुलियों में बंधी कठपुतली हमें बहुत कुछ बता कर जाती है। हमारे देश में कठपुतली को राजस्थान की ही परंपरा का हिस्सा माना जाता है। इसलिए इसे कभी भी देश के दूसरे हिस्सों में तवज्जो नहीं दी गई। लेकिन सच तो ये है कि कठपुतली का खेल तमाशे से कहीं आगे बढ़कर और भी बहुत कुछ है। तो आइए आज हम आपको कठपुतली के इस खेल के बारे में विस्तार से बताते हैं।

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‘भाट’ समुदाय ने की थी शुरुआत (History of kathputli Khel)

ऐसा माना जाता है कि कठपुतली के इस खेल की शुरुआत रेगिस्तान के रहने वाले भाट समुदाय के द्वारा की गई थी। जो कि सबसे पहले कठपुतली को लोगों के मनोरंजन के लिए दिखाया करता था। बताया जाता है कि इसकी शुरुआत रेगिस्तान के मुहाने पर बसे शहर जोधपुर के नागौर जिले में सबसे पहले हुई थी। भाट समुदाय के लोग इस खेल से पहले खेती किया करते था। लेकिन कुछ कारणों के चलते बाद में वह खानाबदोश हो गए। कठपुतली के खेल की शुरुआत भी इसी वज़ह से हुई थी।

बदलते मौसम ने ‘भाट’ समुदाय से छीन ली थी खेती-बाड़ी

राजस्थान के बदलते मौसम ने आज के करीब सौ साल पहले ही भाट समुदाय से उनकी खेती-बाड़ी छीन ली थी। इस वज़ह से उनके सामने रोज़ी रोटी का बड़ा संकट खड़ा हो गया। इसके बाद घर चलाने के लिए इस समुदाय ने कपड़े और लकड़ी से बनी गुड़िया बनाने का काम शुरू किया। इसे नचाने के लिए बहुत सारी कविता और कहानियों की रचना भी की गई। पहले इसे हाथों से नचाया जाता था, फिर इसे धागे से नचाया जाने लगा। इसे नाचता देखकर ग्राहक इस गुड़िया के प्रति ख़ूब आकर्षित हुए। जिससे भाट समुदाय को उत्साह मिला।

राजाओं की वीरता की कहानियों ने इस खेल को दिया नया मोड़

कठपुतली को नचाने और बेचने के लिए भाट समुदाय अब गांवों में जाने लगा। भाट समुदाय ने जब इसे अपने रोजगार के तौर पर अपना लिया तो देखा गया कि कठपुतली को बेचने से ज़्यादा मेहनत तो इसका खेल दिखाने में करनी पड़ती थी। भाट समुदाय अब नियमित तौर पर कुछ गांवों में जाते और कुछ दिन तक अपना खेल दिखाते इसके बाद वह फिर अगले गाँव की तरफ़ बढ़ जाते। इसी प्रक्रिया ने भाट समुदाय को खानाबदोश बना दिया।

राजस्थान के शाही परिवारों का इस समुदाय के इस खेल को उनका साथ मिलता रहे इसके लिए ये समुदाय कठपुतलियों को नचाने के लिए राजस्थान के पुराने राजाओं और उनकी वीरता के किस्से सुनाता था। इससे लोगों का मनोरंजन होने के साथ भाट समुदाय को शाही परिवारों का निरंतर साथ मिलता रहता था।

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शाही परिवारों में हो गया ये खेल लोकप्रिय

कठपुतली को नचाने के लिए जिन गीतों का सहारा लिया जाता था, उससे राजस्थान के शाही परिवार बेहद प्रभावित हुए। इसका नतीजा ये हुआ कि हर शाही परिवार की अपनी एक कठपुतली बनने लगी। साथ ही उसका खेल दिखाने वाला कोई विशेष कलाकार। ‘चारण’ भी इन्हीं में से एक कलाकार हैं, जो कि शाही परिवारों में कठपुतली का खेल दिखाते थे। हालांकि, ख़ास बात ये है कि ये कलाकार हमेशा भाट समुदाय के ही होते थे।

‘चारण’ बन गए थे विशेष कलाकार

‘चारण’ कठपुतली के इस खेल में अपनी विशेष पहचान बना चुके थे। जो कि इस खेल में दो भूमिकाओं में दिखाई पड़ते थे। वह कठपुतली को नचाते भी थे और गीत भी गाते थे। इसके साथ ही उसके पास वाद्य यंत्रों को बजाने के लिए एक संगीत की टोली भी मौजूद होती थी। भाट समुदाय राजस्थान में आज भी अपना एक विशेष महत्त्व रखता है। क्योंकि इस समुदाय के पास राजवंशों की पूरी वंशावली मौजूद होती है। उनके पास कठपुतली को नचाने के लिए शाही परिवारों के वंशावली और वंश से जुड़े तमाम किस्से कहानियाँ मौजूद होते थे। जो कि समय-समय पर लोगों को सुनाया करते थे।

इन कहानियों ने बनाई विशेष जगह

वैसे तो राजस्थान का इतिहास वीर राजाओं से भरा पड़ा है। लेकिन फिर भी कुछ राजाओं की कहानी कठपुतली के इस खेल में बेहद लोकप्रिय हो गई थी। उन्हीं में से एक है ‘राजा अमर सिंह’ की। अमर सिंह अपने राज्य को मुगलों के शासन से बचाने के लिए मुगल सल्तनत से भी बिना डरे उनसे जा टकराए थे। हालांकि, उनके साथ छल भी कर दिया गया था, जिसके चलते 1628-58 के बीच वह मुगल बादशाह शाहजहाँ के दरबार में वह दरबारी भी रहे थे। लेकिन जैसे ही उन्हें इस छल का आभास हुआ उन्होंने तुरंत इस पद को ठुकरा दिया था।

इसके बाद इस खेल में लोकप्रिय किस्सा आता है ‘अनारकली’ का। अनारकली भी इस खेल का मुख्य पात्र हुआ करती थी। इस खेल की विशेष बात ये होती थी कि इसमें लोगों का मनोरंजन करने के लिए सदैव वीर योद्धाओं की कहानियों का ही प्रचार किया जाता था। फिर चाहे वह कोई राजा रहे हो, या कोई फकीर। इसलिए इस खेल ने हमेशा लोगों को प्रेरणा देने का काम किया है।

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खत्म हो रही है कठपुतली के खेल की परंपरा

आज के आधुनिक युग में हमारे पास मनोरंजन के तमाम साधन मौजूद हैं। इसलिए इसका असर कठपुतली के खेल पर भी दिखाई पड़ा है। आज जहाँ कठपुतली के खेल को दिखाने वाले कलाकारों को बेहद कम पैसे दिए जाते हैं, तो वहीं कठपुतली का खेल देखने वाले दर्शक भी बेहद कम बचे हुए हैं। ऐसे में अब भाट समुदाय के ज्यादातर बच्चे इस खेल को छोड़ दूसरे रोजगार के साधनों की तरफ़ बढ़ने लगे है।

कठपुतली के यदि हम आकार की बात करें तो वह लकड़ी की बनी होती है। लेकिन उसमें लचक लाने के लिए उसके बीच में रूई का प्रयोग किया जाता है। इस खेल को रोचक बनाने के लिए बीच-बीच में सीटी भी बजाई जाती है। इस सीटी की आवाज़ बेहद अलग होती थी, क्योंकि ये सीटी बांस से बनी होती थी। इस कला को आगे बढ़ाने के लिए लोग इसे अपने परिवार में अपने बच्चों को सिखाया करते थे। लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी आज इस परंपरा के साथ भाट समुदाय का रोजगार भी छूटने के मुहाने पर खड़ा है।

जुड़ी है धार्मिक मान्यता (History of kathputli Khel)

कठपुतली के खेल के साथ धार्मिक मान्यता भी जुड़ी हुई है। ऐसा माना जाता है कि जब कोई कठपुतली कई सालों तक खेल दिखाने के बाद खराब होने लगती है, तो भाट समाज के लोग उसे ऐसे ही नहीं फेंक देते थे। उसे पूरे सम्मान के साथ किसी नहर में तैरा के आते थे। जैसे बहुत से लोग भगवान की मूर्ति का विसर्जन करते हैं। कहा जाता है कि कठपुतली जितनी दूर तक तैरती हुई जाती थी, तो उस परिवार की तरक्क़ी भी उतनी ही ज़्यादा होती थी।

तो आज हमने आपको कठपुतली के खेल का जो इतिहास (History of kathputli Khel) बताया है वह आपको वाकई गौरवान्वित करने वाला लगा होगा। इसलिए अगली बार जब भी आपके आसपास कठपुतली का खेल हो उसे बिना देखे मत जाने दीजिएगा। क्योंकि इससे सिर्फ़ आपका मनोरंजन ही नहीं भाट समुदाय का रोजगार भी जुड़ा है। साथ ही इस खेल के माध्यम से आपको भारत के तमाम राजाओं-महाराजाओं का गौरवपूर्ण इतिहास भी जानने को मिलता है

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News Desk
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तमाम नकारात्मकताओं से दूर, हम भारत की सकारात्मक तस्वीर दिखाते हैं।

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