पेड़ पौधे आपको ज़िंदगी जीने की एक वज़ह देते हैं। बहुत ख़ुशी होती है यह देख कर जब आपके छोटे से लगाए हुए पौधे पेड़ बन जाते हैं। ऐसा लगता है जब ख़ुद का बच्चा अपनी आंखों के सामने बड़ा हो रहा हो। वहीं पेड़ हजारों पंछियों को रहने के लिए आसरा प्रदान करते हैं और मन में एक विरह-सी उठती है जब वही पेड़ काटे जाते हैं और वह हजारों पंछी बेआसरा हो जाते हैं। ऐसे ही चिड़ियों के टूटे घोसले और अंडों को देख मन में विरह उठने के बाद दो व्यवसायियों ने पूरा जंगल ही लगाने का फ़ैसला किया।
10 साल पुराने दोस्त राधाकृष्णन नायर (Radhakrishnan Nair) और दीपेन जैन (Deepen Jain) पर्यावरण के बहुत बड़े ज्ञाता है। जब इन दोनों ने चिड़ियों के टूटे हुए घोसले और अंडे देखें तभी इन दोनों ने यह फ़ैसला लिया कि इन्हें पेड़ लगाने हैं। अभी तक दोनों दोस्तों ने लाखों पेड़ लगाकर 55 जंगलों का निर्माण किया हैं। अब तो इनके लगाए हुए सारे पौधे पेड़ बन चुके हैं। दोनों दोस्त पर्यावरण, जीवों, जंगलों के संरक्षण को लेकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे हैं।
मियावाकी तकनीक से उगाते हैं जंगल
जंगल लगाने में दोनों दोस्त जिस तकनीक का इस्तेमाल करते हैं उस तकनीक का नाम है मियावाकी तकनीक, जिसके द्वारा बहुत ही कम समय में जंगलों का निर्माण किया जा सकता है।
बिजनेस के दौरान दोनों की मुलाकात हुई
राधाकृष्णन नायर जिनका जन्म तो केरल में हुआ है लेकिन शुरू से ही उनका पूरा परिवार कर्नाटक में रहता है। कर्नाटक से नायर नौकरी की तलाश में मुंबई गए और उसके बाद गुजरात के उमरगांव और वहाँ जाकर उन्होंने ख़ुद का कपड़े का बिजनेस शुरू कर लिया। वहीं दूसरी ओर दीपेन जैन मुंबई में हीं पले-बढ़े हैं तथा उनका परिवार व्यवसाय से जुड़ा हुआ है। इन दोनों दोस्तों की मुलाकात भी बिजनेस को लेकर ही हुई थी।
टूटे चिड़िया के घोसले और अंडे ने यह करने पर मजबूर किया
सामाजिक कार्यों में रुचि रखने वाले नायर बताते हैं कि एक बार मरगांव में सड़कों के चौड़ीकरण के लिए काफ़ी सारे पेड़ काटे जा रहे थे जिन्हें रोकने की उन्होंने पूरी कोशिश की। फिर भी कुछ हो नहीं पाया। एक दिन की बात है जब वह अपनी गाड़ी से गुजर रहे थे और उन्होंने देखा कि एक चिड़िया सड़क के किनारे घूम रही थी और आवाज़ लगा रही थी। जब उन्होंने ग़ौर किया तो पता चला कि उसका अंडा पेड़ से गिरकर टूट गया था और वह बार-बार पेड़ से उतरकर अंडे को देख रही थी और पेड़ पर जा रही थी। ऐसा लगा जैसे चिड़िया मदद की आस में हो और यह कह रही हो कि इसमें मेरी क्या गलती थी? उस समय उन्होंने उस चिड़िया के दर्द को महसूस किया और सोचा कि हमें उनके लिए कुछ करना चाहिए।
जापान से सीखे इस तकनीक के बारे में
नायर ने इस आपबीती को अपने मित्र दीपेंद्र जयंत से सुनाया। उन्होंने भी कहा कि हमें इसके लिए कुछ ना कुछ ज़रूर करना चाहिए। दीपेंद्र जैन को बिजनेस के सिलसिले में कई बार जापान जाना पड़ता है। वही इन्हें मियावाकी तकनीक के बारे में जानकारी हुई। जिसके द्वारा कम जगह में भिन्न-भिन्न पेड़ पौधों को लगाया जाता है। अपने लगाए हुए जंगलों को इन्होंने सघन वन नाम दिया है।
गुजरात में जंगल उगाने से की शुरुआत
दोनों दोस्त नायर और दीपेन ने इस तकनीक को मियावाकी संस्थान के द्वारा सीखा। इन्होंने सबसे पहले गुजरात के गाँव में एक छोटी-सी ज़मीन खरीदी तथा वहाँ पर एक मियावाकी जंगल बसाया। सिर्फ़ ढाई सालों में ही अच्छी देखभाल से यह जंगल अच्छी तरह से पनप गया और इस तरह मियावाकी जंगल की सफलता ने पूरे क्षेत्र में इन्हें पहचान दिला दी।
‘फॉरेस्ट क्रिएटर्स’ की शुरुआत की
इन्होंने कई स्कूलों कॉलेजों से प्रस्ताव आने के बाद वहाँ मियावाकी तकनीक से पेड़ों को लगाया है। अब तो इन्हें कई इंडस्ट्री से भी ऑफर आने लगे हैं। उसके बाद इन्होंने एनवायरो क्रिएटर फाउंडेशन बनाया। जिसके तहत उन्होंने ‘फॉरेस्ट क्रिएटर्स’ की शुरुआत की।
40 शहीदों के नाम पर 40 हज़ार पेड़ लगाए
अब तक ‘फॉरेस्ट क्रिएटर्स’ की टीम ने कुल 12 राज्यों में 55 मियावाकी जंगल तैयार कर चुकी है। उन्होंने सारे प्रोजेक्ट को अलग-अलग लोगों के साथ मिलकर किया है। कोई प्रोजेक्ट इंडस्ट्रियल कंपनी के लिए है, वही कई सारे प्रोजेक्ट उन्होंने बड़ी-बड़ी कंपनियों के सीएसआर की सहायता से भी किए हैं। दोनों ने हाल ही में उमरगांव में एक और नए प्रोजेक्ट को पूरा किया है और उस मियावाकी जंगल का नाम उन्होंने “पुलवामा शहीद वन” रखा है जो उन्होंने पुलवामा में शहीद हुए सैनिकों की स्मृति में लगाया है। उन्होंने 40 शहीदों के नाम पर 40 हज़ार पेड़ लगाए हैं। यानी एक सैनिक की याद में 1 हज़ार पेड़। अब दोनों एक नए प्रोजेक्ट की तैयारी में लगे हैं।
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पेड़ो के सफल होने की दर 99% है
नायर और जैन जिन पेड़ों को लगाते हैं उनके सफल होने की दर लगभग 99% है। इसकी एक ही वज़ह है कि पौधों को लगाने के बाद ये उन्हें ऐसे ही नहीं छोड़ देते बल्कि 3 वर्षों तक उनकी बहुत अच्छे से देखभाल करते हैं।
‘फॉरेस्ट क्रिएटर्स’ की टीम सिस्टमैटिक तरीके से करती है काम
सबसे पहले जगह का चुनाव करने के बाद ये पता लगाया जाता है कि वह जगह पेड़ लगाने लायक है या नहीं। उसके बाद अगर वहाँ की भूमि बंजर है तो वहाँ पर खाद, कृषि अपशिष्ट और केंचुए जैसे सूक्ष्म जीव डालकर उसे उपजाऊ बनाया जाता है। उसके बाद देखा जाता है कि वहाँ कौन-सा स्थानीय पेड़-पौधा लगाया जा सकता है, क्योंकि मियावाकी जंगल तभी सफल होता है जब उस क्षेत्र के स्थानीय पेड़-पौधे वहाँ लगाए जाएँ।
3 वर्षों तक करनी पड़ती है देखभाल
पेड़ पौधे लगाने के बाद हर रोज़ उसमें पानी दिया जाता है। कम से कम 3 वर्षों तक इन पौधों की सिंचाई करनी पड़ती है, जिसके बाद वह पेड़ सघन वन का रूप लेने लगते हैं। इन पेड़ों के बीच की दूरी कम होने के कारण सूर्य की रोशनी इनके जड़ों तक नहीं पहुँच पाती है, जिससे 3 वर्ष के अंदर ही इन पेड़ों के जड़ बारिश के पानी को अवशोषित करना शुरू कर देते हैं जिसके कारण भूमि में जल का स्तर भी बहुत बढ़ जाता है।
3 वर्षों के बाद इन पेड़ों को किसी देखभाल की ज़रूरत नहीं
नायर के अनुसार 3 वर्षों के बाद इन पेड़ों को किसी देखभाल की ज़रूरत नहीं पड़ती। अगर मियावाकी तकनीक के द्वारा मुंबई जैसे शहर में, जहाँ जगह की बहुत कमी है, वहाँ छोटे-छोटे जगहों पर यदि पेड़ लगाए गए तो उसे भी प्रकृति के करीब लाया जा सकता है।
मियावाकी तकनीक कम समय में अपने शहर को हरा-भरा करने का एक माध्यम है
विपिन जैन ने कहा कि मियावाकी तकनीक से लगाए गए जंगल का यह मतलब नहीं है कि आप प्राकृतिक रूप से बढ़े पेड़ों को काट दें, क्योंकि प्राकृतिक जंगल की किसी भी तकनीक से तुलना नहीं की जा सकती। यदि प्राकृतिक रूप से बढ़े वर्षों पुराने 50 पेड़ को काटकर उसके बदले में 1000 मियावाकी की वन भी तैयार कर दिया जाए तो यह सही बात नहीं है। प्राकृतिक रूप से उगे हुए पेड़ों को प्रकृति स्वयं देती है उसका मुकाबला कोई भी तकनीक नहीं कर सकता है। मियावाकी तकनीक बस कम समय में अपने शहर को हरा-भरा करने का एक माध्यम है और कुछ नहीं।
100 करोड़ पेड़ों को लगाने का लक्ष्य है
भविष्य के लक्ष्य के बारे में दीपक जैन कहते हैं कि उन लोगों ने 10 वर्षों में लगभग 100 करोड़ पेड़ों को लगाने का लक्ष्य रखा है। इस मुहिम में ज़्यादा से ज़्यादा संख्या में लोगों को जोड़ने की कोशिश की जा रही है और उन्हें फ्री में ही मियावाकी तकनीक का ऑनलाइन प्रशिक्षण भी देते हैं। उनकी कोशिश होती है कि ज़्यादा से ज़्यादा युवा साथी उनके साथ जुड़े और इस हुनर को सीखें। जिससे भावी पीढ़ी भी जंगल पेड़ों और हमारे पर्यावरण के संरक्षण के प्रति जागरूक होंगे। इस तरह दोनों दोस्तों का पर्यावरण के प्रति लगाव दूसरों के लिए भी प्रेरणा बन चुकी है।