Success story of Pidilite founder Balwant Parekh – आपने टीवी पर पुराने सोफे को जोड़े रखने वाले फेविकोल का एड तो कई बार देखा होगा, तो पीढ़ी दर पीढ़ी एक घर से दूसरे घर जाता रहता है लेकिन उसकी बनावट में कहीं से भी कोई कमी नहीं आती है। 60 साल का सफ़र तय करने वाले सोफा का एड असल में भारत में फेविकोल ब्रांड के सफ़र को दर्शाता है, जिसका जोड़ इतना मज़बूत होता है कि तोड़ने से भी नहीं टूट सकता।
आज भारत में फेविकोल के नाम से बच्चा-बच्चा परिचित है, जिसका इस्तेमाल हर छोटी से बड़ी चीज को जोड़ने के लिए किया जाता है। लेकिन क्या आपने कभी फेविकोल ब्रांड की शुरुआत और उसके मालिक के बारे में सुना है, जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में इस लोकप्रिय चीज की शुरुआत की थी।
बलवंत पारेख (Balwant Parekh)
फेविकोल को भारत के घर-घर पहुँचने का श्रेय बलवंत पारेख (Balwant Parekh) को दिया जाता है, जो भारत के उन चुनिंदा उद्योगतियों में से एक हैं जिन्होंने आजादी के बाद हिंदुस्तान को उसके पैरों पर खड़े करने में मदद की थी। आज बलवंत पारेख अरबों की संपत्ति के मालिक हैं, लेकिन इस मुकाम तक पहुँचने के लिए उन्होंने ढेर सारे पापड़ बेले हैं।
आजादी के बाद भारत की आर्थिक स्थिति बहुत ही खराब थी, लोगों के पास पहनने के लिए कपड़े और खाने के लिए भोजन नहीं था। ऐसे में बलवंत पारेख ने भारत की आर्थिक स्थिति को बेहतर करने के लिए मुहिम शुरू की थी, जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने फेविकोल (Fevicol) की नींव रखी।
बलवंत पारेख (Balwant Parekh) का जन्म सन् 1925 में गुजरात (Gujrat) के भावनगर (Bhavnagar) जिले में स्थिति महुवा नामक गाँव में हुआ था, उन्हें बचपन से ही बिजनेस मैन बनने का शौक था। लेकिन बलवंत पारेख के परिवार वाले चाहते थे कि वह पढ़ाई करके वकील का पद संभाले, ऐसे में उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा गाँव में पूरी की थी।
आजादी के आंदोलनों में लिया हिस्सा, नहीं की वकालत
स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद बलवंत पारेख वकालत की पढ़ाई करने के लिए मुंबई आ गए, जहाँ उन्होंने सरकारी लॉ कॉलेज में एडमिशन ले लिया। यह वही दौर था जब पूरा भारत महात्मा गांधी के साथ मिलकर भारत के लिए आजादी की लड़ाई लड़ रहा था, ऐसे में बलवंत पारेख ने भी युवाओं को महात्मा गांधी के साथ जोड़ने की मुहिम शुरू कर दी।
बलवंत पारेख ने महात्मा गांधी के आंदोलनों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था, इसी दौरान उन्होंने अपनी वकालत की पढ़ाई भी जारी रखी और उसे पूरा कर लिया। बलवंत पारेख ने घरवालों के दवाब में आकर वकालत की पढ़ाई तो पूरी कर ली थी, लेकिन उन्होंने लॉ प्रेक्टिस करने से साफ़ इंकार कर दिया।
बलवंत पारेख पर महात्मा गांधी के विचारों का रंग चढ़ चुका था, इसलिए वह वकालत से ज़्यादा सत्य और अहिंसा को महत्त्व देने लगे थे। उनका मानना था कि वकलात झूठ और धोखे का व्यापार है, जिसमें अपनी बात मनवाने के लिए झूठ बोलना पड़ता है। यही वज़ह था कि बलवंत पारेख ने वकालत करने के बजाय भारत को आजादी दिलाने वाले आंदोलनों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था।
आजीविका चलाने के लिए की साधारण नौकरी
बलवंत पारेख ने वकालत करने से साफ़ इंकार कर दिया था, ऐसे में उन्हें आजीविका चलाने के लिए कोई न कोई काम तो करना ही था। मुंबई में रहने और खाने के लिए उन्होंने डाइंग और प्रिंटिंग प्रेस में नौकरी शुरू कर दी, लेकिन शुरुआत में प्रेस के काम में उनका बिल्कुल भी मन नहीं लगता था। हालांकि परिस्थितियों के आगे उन्होंने हार मानने के बजाय काम करना जारी रखा।
बलवंत पारेख ने कुछ दिन प्रिंटिंग प्रेम में काम किया, जिसके बाद उन्होंने उस नौकरी को छोड़कर एक लकड़ा व्यापारी के ऑफिस में बतौर चपरासी की नौकरी शुरू कर दी। वकालत की पढ़ाई करने वाले व्यक्ति के लिए चपरासी की नौकरी करना बिल्कुल भी आसान नहीं था, लेकिन बलवंत पारेख अपने वसूलों के पक्के थे।
चपरासी की नौकरी करने के दौरान बलवंत पारेख को ऑफिस के गोदाम में रहना पड़ता था, उनके साथ उनकी पत्नी भी गोदाम में रहकर अपना जीवन व्यतीत कर रही थी। इस तरह बलवंत पारेख ने अलग-अलग नौकरियाँ की और व्यापार चलाने के तरीके सीखते रहे, इतना ही नहीं इस दौरान उन्होंने अलग-अलग व्यापारियों से संपर्क भी बनाए।
जर्मनी से मिला व्यापार करने का आइडिया
इस तरह नौकरियाँ बदलते रहने की वज़ह से बलवंत पारेख को जर्मनी जाने का अवसर मिला, जो उन्हें एक व्यापारी ने दिया था। इसके बाद बलवंत पारेख ने जर्मनी की यात्रा में व्यापार से जुड़ी बारिकियों को सीखा, ताकि वह अपना बिजनेस शुरू कर सके।
विदेश यात्रा से लौटने के बाद बलवंत पारेख अपना बिजनेस शुरू करने के लिए बिल्कुल तैयार थे, क्योंकि जर्मनी से उन्हें व्यापार चलाने का आइडिया मिल चुका था। बलवंत पारेख ने पश्चिमी देशों में साइकिल, एक्स्ट्रा नट्स और पेपर डाई जैसी चीजों का आयात करने का बिजनेस शुरू कर दिया, जिसके बाद उनकी क़िस्मत रातों रात बदल गई।
बिजनेस शुरू करने के बाद बलवंत पारेख सबसे पहले किराए का कमरा छोड़ा और अपने परिवार के साथ एक फ़्लैट में रखने लगे। वहीं बिजनेस में भी बलवंत पारेख को अच्छी सफलता मिल रही थी, जिसकी वज़ह से उन्होंने बहुत कम समय में ही ज़्यादा पैसा कमा लिया था।
हालांकि बलवंत पारेख को असल कामयाबी तब मिली, जब भारत को अंग्रेजों की गुलामी से आजादी मिली। इस तरह भारत के आजाद होते ही व्यापारियों को खुले दौर पर बिजनेस करने का मौका मिल गया था, जिसकी वज़ह से आर्थिक तंगी से जूझ रहे भारत की स्थिति में भी सुधार होने लगा।
भारत के फेविकोल मैन (Fevicol man of India)
बलवंत पारेख को फेविकोल मैन के नाम से भी जाना जाता है, जिन्होंने पिडिलाइट कंपनी (Pidilite Industries) में फेविकोल प्रोडक्ट को बनाने के शुरुआत की थी। यह कंपनी फेविकोल (Fevicol) के साथ-साथ एम-सील (M-Seal), फेवि क्विक (Feviquick) और डॉक्टर फिक्सइट (Dr Fixit) जैसे प्रोडक्ट्स का भी निर्माण करती है, जो अगर-अगर प्रकार की टूटी हुई चीजों को आपस में जोड़ने का काम करते हैं।
बलवंत पारेख का आयात का काम काफ़ी अच्छा चल रहा था, लेकिन इस दौरान उन्हें ख़्याल आया कि लकड़ी को आपस में जोड़ने में काफ़ी कठिनाई होती है। जब बलवंत पारेख लकड़ी व्यापारी के पास चपरासी की नौकरी करते थे, तब उन्होंने लकड़ी को जोड़ने में आने वाली मुश्किलों को देखा था।
ऐसे में बलवंत पारेख को आइडिया आया कि क्यों न ऐसा प्रोडक्ट बनाया जाए, तो लकड़ी को आसानी से जोड़ने का काम करे। क्योंकि जानवरों की चर्बी से बनने वाले गोंद को काफ़ी देर तक गर्म करना पड़ता था, जिसके बाद उसके इस्तेमाल से लकड़ी को जोड़ा जाता था।
इसके साथ ही चर्बी से बने गोंद को गर्म करते समय काफ़ी बदबू आती थी, जिसकी वज़ह से कारीगरों का सांस लेना भी मुश्किल हो जाता था। ऐसे में बलवंत पारेख ने नए तरीके से गोंद बनाने का फ़ैसला किया, जिसे इस्तेमाल करना आसान हो और उससे तेज गंध भी न आए।
इसके बाद बलवंत पारेख ने काफ़ी खोजबीन करने के बाद सिंथेटिक रसायन का फोर्मूला खोजा और उस प्रयोग के लिए पहली बार बदबू रहित गोंद बनाने में सफलता हासिल की। इसके बाद बलवंत पारेख ने अपने भाई सुनील पारेख के साथ मिलकर साल 1959 में पिडिलाइट ब्रांड (Pidilite Industries) की नींव रखी।
इस ब्रांड ने भारत वासियों को फेविकोल नामक गोंद दिया था, जो सफेद और खुशबूदार था। इससे पहले भारतीयों को जानवरों की चर्बी से तैयार होने वाले गोंद का इस्तेमाल करके चीजों को चिपकाना पड़ता था, जो बहुत मेहनत भरा और बदबूदार काम था।
जर्मन भाषा से सम्बंधित है Fevicol
अगर आपने कभी फेविकोल के नाम पर ध्यान दिया हो, तो उसका मतलब समझने में काफ़ी दिक्कत आती है क्योंकि यह शब्द न तो हिन्दी भाषी है और न ही अंग्रेजी। दरअसल फेविकोल शब्द जर्मन भाषा से लिया गया है, जिसका हिन्दी में अर्थ है दो चीजों को जोड़ना।
बलवंत पारेख ने यह शब्द अपनी जर्मन यात्रा के दौरान सुना था, ऐसे में उन्होंने खुशबूदार गोंद को फेविकोल काम दे दिया। इतना ही नहीं जर्मनी में मेविकोल नामक एक कंपनी थी, जो गोंद बनाने का काम करती थी। ऐसे में उसी कंपनी से प्रेरित होकर बलवंत पारेख ने भारत में बनने वाली गोंद को फेविकोल नाम दे दिया।
Fevicol से बदल गई भारतीयों की जिंदगी
भारत में फेविकोल के निर्माण के बाद से भारतीयों की ज़िन्दगी बहुत ही आसान हो गई थी, क्योंकि लकड़ी समेत दूसरी चीजों को जोड़ने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगता था। यही वज़ह थी कि फेविकोल देखते ही देखते देशभर में प्रसिद्ध हो गया, जिसका इस्तेमाल आम आदमी से लेकर बड़े-बड़े लकड़ा व्यापारी करते थे।
इस तरह धीरे-धीरे फेविकोल की मांग बढ़ने लगी और पिडिलाइट कंपनी का वर्चस्व भी ऊंचा हो गया। जैसे-जैसे फेविकोल की मांग बढ़ती गई, कंपनी नए-नए तरह के प्रोडक्ट्स लॉन्च करना शुरू कर दिया। इस तरह पिडिलाइट (Pidilite Industries) ने फेविकोल (Fevicol) के साथ-साथ फेवि क्विक (Feviquick), एम-सील (M-Seal) जैसे प्रोडक्ट्स का निर्माण शुरू कर दिया, जो रोजमर्रा की समस्याओं को दूर करने में कारगार साबित हुए।
200 से ज़्यादा प्रोडक्ट्स, सैकड़ों लोगों को दिया रोज़गार
पिडिलाइट कंपनी (Pidilite Industries) ने फेविकोल के निर्माण के साथ-साथ भारत के सैकड़ों लोगों को रोज़गार देने का काम भी किया है, क्योंकि हर तरह के प्रोडक्ट का निर्माण करने के लिए कारीगरों की ज़रूरत होती है। वर्तमान में यह कंपनी 200 से ज़्यादा प्रोडक्ट्स का निर्माण करती है, जिसमें सबसे ज़्यादा फायदा फेविकोल से ही मिलता है।
फेविकोल की कामयाबी के श्रेय विज्ञापन को भी दिया जाता है, जिसने इस प्रोडक्ट की मजबूती को दुनिया के सामने रखने का काम किया है। 90 के दशक में हर घर में फेविकोल का विज्ञापन काफ़ी पसंद किया जाता था, क्योंकि विज्ञापन को काफ़ी रोमांचक तरीके से प्रस्तुत किया गया था।
इस तरह साल 1997 में फेविकोल को टॉप 15 ब्रांड्स की लिस्ट में शामिल किया गया था, जबकि साल 2004 में पिडिलाइट कंपनी का टर्नओवर 1000 करोड़ के पार पहुँच चुका था। इसके बाद साल 2006 में पिडिलाइट ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर अपने ब्रांड्स को बेचने का फ़ैसला किया, जिसके बाद अमेरिका, थाईलैंड, दुबई, इजिप्ट और बांग्लादेश में कंपनी के कारखानों की स्थापना की गई।
नेक दिल इंसान थे बलवंत पारेख (Balwant Parekh)
बलवंत पारेख ने अपने बचपन के सपने को पूरा करते हुए भारत में न सिर्फ़ व्यापार किया, बल्कि अपने व्यापार के जरिए ख़ूब नाम और कामयाबी भी हासिल की। उन्होंने कई लोगों को रोज़गार दिया, इसके साथ ही अपने गाँव में दो स्कूल, एक कॉलेज और एक अस्पताल की भी नींव रखी थी।
इसके साथ ही उन्होंने गुजरात की सांस्कृतिक विरासत का अध्ययन करने के लिए दर्शन फाउंडेशन के नाम से एक गैर सरकारी संगठन की नींव रखी थी। इस तरह चपरासी की नौकरी करने वाले बलवंत पारेख को फोर्ब्स ने एशिया के सबसे धनी व्यक्तियों की लिस्ट में 45वां स्थान दिया था, उस समय बलवंत पारेख की निजी संपत्ति 1.36 बिलियन डॉलर थी।
भारत समेत दुनिया भर में अपने ब्रांड्स के लिए मशूहर बलवंत पारेख (Balwant Parekh) ने आजादी से पहले और उसके बाद के दौर को देखा था, जिसके दम पर वह एक बेहतरीन इंसान और व्यापारी साबित हुए। लेकिन जीवन चक्र के आगे हर किसी को झुकना पड़ता है, इस तरह साल 2013 में फेविकोल मैन 88 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कहकर चले गए।