कई बार जीवन में हालात इतने बुरे हो जाते हैं कि हम चाहते हुए भी कुछ करने की स्थिति में नहीं होते। हमारी तमाम कोशिशों के बावजूद जब हम कुछ नहीं कर पाते, तो कई बार हमें समाज में भी नजरें झुकाकर जीना पड़ता है। लेकिन इन सब चुनौतियों के बाद भी कई लोग अपनी कोशिशों में निरंतर लगे रहते हैं। इसी बीच जब कभी उनकी मेहनत रंग लाती है, तो उनकी कहानी हर कोई जानने को बेताब-सा होता है।
आज भी हम आपको ओबेरॉय ग्रुप (The Oberoi Group) के संस्थापक और चेयरमैन राय बहादुर मोहन सिंह ओबरॉय (Rai Bahadur Mohan Singh Oberoi) के जीवन की कहानी आपको बताने जा रहा हैं। आज भले ही ‘ओबेरॉय ग्रुप’ का नाम बड़े अमीर घरानों में से एक गिना जाता होगा। लेकिन इसकी शुरुआत करने वाले मोहन सिंह की कहानी किसी दर्द भरी दास्तान से कम नहीं है। आइए जानते हैं क्या है ओबेरॉय ग्रुप के पीछे की कहानी।
मोहन सिंह ओबरॉय (Mohan Singh Oberoi)
ओबेरॉय ग्रुप (The Oberoi Group) की शुरुआत मोहन सिंह ओबरॉय (Mohan Singh Oberoi) ने की थी। इनका जन्म वर्तमान पाकिस्तान (Pakistan) के झेलम जिले के भनाउ गाँव में हुआ था। वह एक सिख परिवार से सम्बंध रखते हैं। ओबेराय के जीवन की परीक्षा मानो बचपन से ही शुरू हो गई थी। ओबेरॉय के पिता का देहांत जब वह छह महीने के थे तभी हो गया था। इसलिए उनके पालन-पोषण और परिवार की सारी जिम्मेदारी उनकी माँ के कंधों पर आकर ही टिक गई थी।
हालातों को देखते हुए उन्होंने अपनी शुरुआती पढ़ाई गाँव भनाउ के एक स्कूल से ही पूरी की थी। इसके बाद वह आगे की पढ़ाई के लिए पाकिस्तान के रावलपिंडी शहर में चले गए। जहाँ उन्होंने ग़रीबी के बावजूद किसी तरह से सरकारी कॉलेज में अपनी पढ़ाई पूरी की। पढ़ाई पूरी करने के बाद उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती रोजगार पाने की थी। लेकिन इस बार भी उनके हाथ निराशा ही लगी। वह कई जगह रोजगार की तलाश में गए, पर कहीं बात सही से बनी नहीं।
इस निराशा ने उन्हें सोचने पर विवश कर दिया कि “केवल शिक्षा प्राप्त कर लेने पर भी आप रोजगार के योग्य नहीं बन जाते हो।”
टाइपिंग सीख कर भी निराशा लगी हाथ
काफी जद्दोजहद के बाद भी जब उन्हें रोजगार नहीं मिलता दिखाई दिया, तो उन्होंने अपने एक मित्र की सलाह ली। उनके मित्र की सलाह पर वह अमृतसर जो कि वर्तमान भारत में शामिल है, वहाँ टाइपिंग का कोर्स करने चले गए। लेकिन कोर्स शुरू होने के दौरान ही उन्हें आभास हो गया कि इस क्षेत्र में भी ज़्यादा संभावना नहीं है। ऐसे में उन्होंने इस कोर्स को बीच में ही छोड़कर गाँव वापस जाने का फ़ैसला कर लिया। क्योंकि एक तो कोर्स की फीस ऊपर से शहर में रहना उनके लिए बेहद खर्चीला सिद्ध हो रहा था। गाँव में कम से कम रहने खाने का ख़र्च तो उनका बचता ही।
जूते के कारखाने में मिला काम
समय किसी से कुछ भी करवा सकता है। इसका सितम मोहन सिंह ओबरॉय को भी झेलना पड़ा। गाँव लौटने के कुछ ही समय के बाद उनके चाचा ने एक जूते के कारखाने में उनके लिए काम की बात की। वहाँ पर जूते बनाने और बेचने का काम करने के लिए जगह खाली थी। मोहन सिंह ने मजबूरी को देखते हुए इस काम की भी हामी भर दी। लेकिन समय का खेल कहें या मोहन सिंह की बदकिस्मती, ये कारख़ाना भी कुछ ही समय बाद बंद हो गया। इसलिए मोहन सिंह को फिर से खाली हाथ निराशा लेकर वापिस घर लौटना पड़ा। इसी बीच गाँव के लोगों के दबाव के चलते उनका विवाह भी हो गया। उनका विवाह कलकत्ता के एक परिवार में हुआ था।
मोहन सिंह ओबरॉय बड़े ही मज़ाकिया अंदाज़ में कहते हैं “उस समय मेरे पास ना धन था ना नौकरी और ना ही मेरे पास मित्र थे शायद मेरे ससुर जी को केवल मेरा आकर्षक व्यक्तित्व ही भा गया था।”
प्लेग महामारी ने भी किया परेशान
जिस तरह आज देशभर में को रोना फैला हुआ है। ठीक उसी तरह सौ साल पहले दुनियाभर में प्लेग ने कहर बरपा रखा था। विवाह के बाद मोहन सिंह ओबरॉय का ज्यादातर समय ससुराल में ही बीतने लगा था। ऐसे में जब वह एक बार अपने घर आए तो पता लगा कि पूरे गाँव में प्लेग फैल चुका है। जिससे गाँव के कई लोग जान गंवा चुके हैं। हालातों को देखते हुए ओबेराय की माँ ने उन्हें वापिस ससुराल लौट जाने की सलाह दी। माँ ने कहा कि वह फिलहाल ससुराल में रहकर ही कुछ काम-धंधा करें। रोजगार की तलाश में दर-दर की ठोकरें खा चुके ओबेराय फिर एक बार स्वंय को हारा हुआ महसूस कर रहे थे। लेकिन कुछ कहने और समझने को था भी नहीं, वह एक बार फिर अपनी ससुराल सर्गोंधा लौट आए थे।
एक सरकारी विज्ञापन ने बदली ओबेरॉय की किस्मत
हालातों से हारे और टूटे हुए ओबेरॉय उन दिनों को याद करते हुए आगे बताते हैं कि ससुराल में एक दिन उन्होंने देखा कि अख़बार में एक सरकारी नौकरी का विज्ञापन छपा हुआ है। विज्ञापन क्लर्क के एक पद के लिए था जिसकी मोहन सिंह ओबरॉय योग्यता रखते थे। इस विज्ञापन को देखने बाद मोहन सिंह ओबरॉय बिना कुछ सोचे समझे सीधा शिमला निकल गए। इस दौरान माँ के दिए पच्चीस रुपए उनके बड़े काम आए। हालांकि, बिना कुछ तैयारी के इस परीक्षा में जाना मोहन सिंह ओबरॉय के लिए भाग्य आजमाने जैसा काम था।
शिमला जैसे शहर में मोहन सिंह ओबरॉय अपने जीवन में पहली दफा गए थे। ऐसे में उनकी नज़र घूमते हुए शहर की खूबसूरत इमारतों पर पड़ी। उस दौरान शिमला गर्मियों की राजधानी हुआ करती थी। अग्रेजी हुकुमत के सभी बड़े अधिकारी वहीं बैठते थे। ऐसे ही शिमला में घूमते-घूमते एक दिन उनकी नज़र होटल सिसिल पर पड़ी। उस दौरान ये होटल भारत के जाने माने होटलों में से एक हुआ करता था। ओबेराय ने बिना कुछ सोचे समझे होटल के अंदर क़दम रखा। मकसद वहाँ खाना-खाना नहीं, बल्कि काम की बात करना था।
काफ़ी जद्दोजहत के बाद उनकी मुलाकात होटल के मैनेजर साहब डी.वी. जॉर्ज से हुई। मैनेजर बेहद ही मधुर शैली के व्यक्ति थे। इस वज़ह से उन्होंने सीधा अपने काम की बात करना ही उचित समझा। सालों से धोखा दे रही ओबेरॉय की क़िस्मत इस बार मानो उनके साथ थी।
40 रुपए महीने पर होटल में मिला काम
मोहन सिंह ओबरॉय की मेहनत रंग लाई और उन्हें 40 रुपए महीने की तनख्वाह पर होटल में बतौर क्लर्क काम मिल गया। कुछ महीने बाद उनके काम को देखते हुआ उनकी तनख्वाह पचास रूपये महीने करने का फ़ैसला कर लिया गया। कुछ समय बीतने पर मोहन सिंह ओबरॉय ने होटल प्रबंधन को होटल की तरफ़ से आवास मुहैया करवाने की बात कही, तो उनकी बात पर प्रबंधन की तरफ़ से हामी भर ली गई। अब वह अपनी पत्नी के साथ होटल के दिए आवास पर रहने लगे। कुछ महीनों बाद होटल के मैनेजमेंट में बदलाव हुआ और उन्हें स्टेनोग्राफी के साथ कैशियर का काम भी दे दिया गया। स्टेनोग्राफी मोहन सिंह ओबरॉय पहले से ही जानते थे इसलिए उनके लिए ये काम भी आसान था।
जब होटल खरीदने का मिला प्रस्ताव
महज 25 रुपए लेकर ज़िन्दगी की तस्वीर बदलने शिमला आए मोहन सिंह ओबरॉय को पदोन्नति के बाद मानो दोहरी ख़ुशी मिल गई थी। उन्होंने अपने पद पर रहते हुए कड़ी मेहनत की और ब्रिटिश हुक्मरानों के दिल में एक अलग जगह बना ली थी। उस दौरान उनकी पूरे होटल में एक अलग पहचान बन गई थी। समय ऐसे ही गुजरता रहा और एक दिन होटल के मैनेजर क्लार्क ने मोहन सिंह ओबरॉय के सामने नई पेशकश रखी। वह चाहते थे कि सिसिल होटल को 25,000 रुपए में मोहन सिंह ओबरॉय खरीद लें। मोहन सिंह ओबरॉय ने इसके लिए उनसे कुछ समय मांगते हुए होटल खरीदने की हामी भर दी।
आज के दौर में 25, 000 रूपये भले ही छोटी राशि हो पर उस दौरान ये राशि बहुत कीमती थी। 25,000 रुपए के लिए ओबेरॉय ने अपनी पैतृक संपत्ति और पत्नी के जेवरात तक गिरवी रख दिए थे। ओबेराय ने इस रक़म को पांच साल में होटल मैनेजर को पूरा करके दे दी। जिसके बाद 14 अगस्त 1934 को होटल सिसिल पर मोहन सिंह का मालिकाना हक़ हो गया।
आगे चलकर बनाया ओबेरॉय ग्रुप
मोहन सिंह ओबेरॉय ने होटल का मालिकाना हक़ मिलने के बाद भी मेहनत करनी नहीं छोड़ी। उन्होंने वर्ष 1934 में ओबेरॉय ग्रुप (The Oberoi Group) की स्थापना की। जिसमें उस दौरान 30 होटल और पांच बहु सुविधा सम्पन्न होटल शामिल किए हुए थे। यदि हम आज की बात करें तो ओबेराय ग्रुप दुनिया के छह देशों में अपनी एक अलग पबचान बना चुका है। ये कहानी बताती है कि कभी काम के लिए मोहताज मोहन सिंह ओबेरॉय ने इस पूरे सफ़र को अपनी मेहनत के दम पर पूरा किया है। आज ओबेरॉय के पास 7 हज़ार करोड़ का ‘ओबेरॉय ग्रुप’ बड़ा-सा साम्राज्य खड़ा है।
मोहन सिंह ओबरॉय (Mohan Singh Oberoi) की कहानी हम सभी को प्रेरणा देती है। ख़ास तौर पर इस को रोना में, जब लोगों के काम धंधे बंद होते जा रहे हैं। दुनिया भविष्य को लेकर आशंकित है। ऐसे में ओबेराय से हमें सीख मिलती है कि भले ही चुनौतियाँ बड़ी हों, पर यदि हम कोशिश करते रहेंगे तो एक दिन हमें सफलता ज़रूर मिलेगी।