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You tube पर विडियो देख युवक ने शुरू की मोतियों की खेती, आज कमा रहा है लाखों

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राजस्थान; सफेद मोती भला किसे नहीं पंसद होते। सौदर्य और सादगी से परिपूर्ण इन मोतियों को हर कोई पाना चाहता है। मोती चंद्रमा के समान चमकदार और हीरे की तरह कीमती होते हैं। मोती आमतौर पर अर्गोनॉइट (Aragonite) और कोंचियोलिन (Conchiolin) से बने होते हैं। मोती विभिन्न आकृतियों और आकारों के होते हैं। आज हमारा देश हर साल अरबों रुपये ख़र्च करता है, चीन और जापान से मोती आयात करने के ऊपर। इंडियन मिरर की एक रिपोर्ट के मुताबिक, Central Institute of Freshwater Acquaculture (CIFA) के विश्लेषकों के अनुसार भारत में भी अंतर्देशीय संसाधनों से बहुत अच्छी गुणवत्ता वाले मोती का उत्पादन करना संभव है।

भारत पुराने दौर में भी मोतियों की खेती (Pearl Fisheries) कर रहा था। जिन पारंपरिक क्षेत्रों में प्राकृतिक मोती पैदा हुए थे वह हैं गन्नार (तमिलनाडु) और कच्छ (गुजरात) की खाड़ी में स्थित हैं, लेकिन आज उत्पादन बहुत कम है। भारत सरकार के केंद्रीय समुद्री मत्स्य अनुसंधान संस्थान ने मोती की खेती करने में सफलता प्राप्त की और एक परियोजना तिरुवनंतपुरम (केरल) के पास, विझिनजाम केंद्र में स्थापित की गई है। मोती उत्पादन के लिए गुजरात में भी प्रयास किए गए हैं। 1994 में सफल प्रयोगों के साथ, राजस्थान ने भी अपनी दक्षिणी झीलों से संवर्धित मोती का उत्पादन करने की संभावना जताई गई है।

नरेंद्र कुमार गरवा (Narendra Kumar Garwa)

आज हम आपको राजस्थान के रहने वाले नरेंद्र कुमार गरवा (Narendra Kumar Garwa) की कहानी बताने जा रहे हैं। जिन्होंने अपनी ज़मीन ना होने के बावजूद मोतियों की खेती शुरू की और आज लाखों में आमदनी कर ही रहे हैं। साथ ही मोतियों के मामले में देश को भी आत्मनिर्भर बनाने की तरफ़ बढ़ रहे हैं।

नरेंद्र राजस्थान के किशनगढ़ के रेनवाल गाँव के रहने वाले हैं। नरेंद्र ने बीए की पढाई पूरी करने के बाद अपने पिता की किताबों की दुकान पर बैठना शुरू कर दिया। नरेंद्र बताते हैं कि पिछले दस वर्षों से वह अपने पिता की किताबों की दुकान पर बैठते हैं। जहाँ अक्सर वह खाली समय में  You Tube पर खेती-बाड़ी से जुड़े विडियो देखकर खेती के नए-नए तरीकों को जाना समझा करते थे। हांलाकि, नरेंद्र को खेती का शौक तो था पर परेशानी ये थी कि उनके परिवार के पास कोई ज़मीन नहीं थी जिस पर वह खेती कर सकें। लेकिन एक दिन किसी जानकार ने उन्हें एक वीडियो भेजा। जिसमें कहा गया था कि खेती करने के लिए ज़मीन की आवश्यकता नहीं है। उस वीडियो से प्रेरित होकर उन्होंने सबसे पहले सब्जियाँ उगाना शुरू किया।

उसके कुछ दिनों बाद नरेंद्र ने मोतियों की खेती का वीडियो देखा, जिससे उन्हें पता चला कि मोती को बिना ज़मीन के भी उगाया जा सकता है। नरेंद्र ने मोती की खेती के बारे में सीखने में और ज़्यादा समय देना शुरू कर दिया। उनमें इच्छाशक्ति थी कि अपने घर की ज़मीन पर मोतियों की खेती की जाए। बस कमी थी तो उचित मार्गदर्शन की। इसलिए, उन्होंने साल 2017 में भुवनेश्वर के सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रेशवाटर एक्वाकल्चर (CIFA) में ‘फ्रेश वाटर पर्ल फार्मिंग ऑन आंत्रप्रेन्योरशिप डेवलपमेंट’ में 5 दिन का छोटा-सा कोर्स भी किया। ताकि मोतियों की इस खेती को वैज्ञानिक तौर-तरीकों से भी समझा जा सके।

इस तरह से होती है मोतियों की खेती

नरेंद्र फिलहाल दो प्रकार के मोती उगाते हैं- डिजाइनर (विभिन्न तरह के डिजाइनों में ढाला हुआ) और गोल- जिन्हें विकसित होने में लगभग एक साल और 1.5 साल लगते हैं। उन्होंने 10 × 10 फीट के क्षेत्र में मोती की खेती करने के लिए 40, 000 रुपये का इनवेस्ट किया था, जो उन्हें हर साल जीरो रखरखाव के साथ लगभग 4 लाख रुपये की आदायगी देता है।

उन्होंने अपने घर में कृत्रिम कंक्रीट के तालाब (5 फीट गहरे) का निर्माण करवाया और सर्जरी के सामान, दवाइयाँ, अमोनिया मीटर, पीएच मीटर, थर्मामीटर, दवाएँ, एंटीबायोटिक्स, माउथ ओपनर, पर्ल न्यूक्लियस जैसे  तमाम उपकरण खरीदे। इसके बाद, उन्होंने मसल्स (खारे पानी के आवास) , गोबर, यूरिया और सुपरफॉस्फेट से शैवाल के लिए भोजन तैयार किया।

नरेंद्र कुमार गरवा (Narendra Kumar Garwa) का यह वीडियो देखें

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तालाब में स्थानांतरित होने से पहले मसल्स को ताजे पानी में 24 घंटे तक रखा जाता है। एक बार वहाँ, उन्हें मृत्यु दर निर्धारित करने या कम करने के लिए 15 दिनों के लिए भोजन दिया जाता है। एक बार जब उनकी ज़रूरत स्पष्ट हो जाती है, तो नाभिक डालने की प्रक्रिया शुरू होती है। नरेंद्र कहते हैं, “पर्ल न्यूक्लियस को प्रत्येक मसल्स के अंदर सावधानी से डाला जाता है और पानी में डुबोया जाता है (15-30 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर) शैवाल को मसल्स के लिए भोजन के रूप में जोड़ा जाता है।

एक साल बाद, नाभिक मोती के गोले से कैल्शियम कार्बोनेट इकट्ठा करने के लिए एक मोती थैली देता है। नाभिक इसे कोटिंग की सैकड़ों परतों के साथ कवर करता है जो अंत में उत्तम मोती बनाता है।” जबकि तालाब को बनाए रखने में कोई मौद्रिक लागत नहीं है, किसी को सतर्क रहना होगा और जल स्तर, मसल्स का स्वास्थ्य, शैवाल की उपस्थिति और इतने पर नियंत्रित करना होगा। मोती तैयार होने के बाद, नरेंद्र उन्हें एक प्रयोगशाला में भेजते हैं। गुणवत्ता के आधार पर, एक मोती 200 रुपये से 1, 000 रुपये के बीच बेचा जा सकता है। नरेंद्र फिलहाल हर साल करीब तीन हज़ार मोती तैयार कर बेचते हैं।

दूसरों को भी सिखा रहे हैं मोतियों की खेती

नरेंद्र आज सिर्फ़ अपनी खेती तक सीमित नहीं हैं वह चाहते हैं कि कोई भी जानकारी के अभाव में ना रहे। इसलिए वह नियमित तौर पर लोगों को जागरूक भी करते हैं। जागरूकता के इस काम में तेजी लाने के लिए अपने गाँव रेनवाल में ही उन्होंने Alkha Foundation पर्ल फार्मिंग ट्रेनिंग स्कूल खोला। जिसमें समय-समय पर दो दिवसीय कार्यशाला आयोजित की जाती हैं जिसमें भाग लेने वाले प्रतिभागियों को प्रमाण पत्र भी दिया जाता है। नरेंद्र इससे जागरूक करने के साथ आमदनी भी प्राप्त करते हैं।

नरेंद्र कुमार गरवा (Narendra Kumar Garwa) पुरानी बातों को याद करते हुए कहते हैं कि “जब मैंने इस काम की शुरुआत की, तो मेरे परिवार ने यह कहते हुए मेरा मज़ाक उड़ाया कि घर में मोती उगाना असंभव है। किसी ने मुझे प्रोत्साहित नहीं किया। लेकिन मैं नहीं चाहता कि दूसरों को अपना उदाहरण देकर प्रोत्साहित किया जाए” नरेंद्र बताते हैं कि लाॅकडाउन के चलते सभी काम धंधे ठप हो गए थे। तब भी उनका काम उतनी ही तेजी से चल रहा था। उनका मानना है कि वह अगले साल तक इस काम को दोगुना करने के लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे।

(फोटो साभार: नरेंद्र कुमार गरवा)

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